Monday, December 1, 2008
देश काल
बीज जो बोए आज वही कल फल पाएंगे
क्रांति नहीं आतंकित मन मे रह सकती है
प्रयाण के पूर्व ही देखो ये थकती है
जो था प्रहरी और आया काम
जो था सुरक्षित प्राण उसी के प्रतीक्षित हैं
थम कर कह संयम नहीं आज का नारा
सुना रुदन जो रो रहा भविष्य हमारा
विरोध भी मेरा अब रहा नहीं
सघर्ष प्रतिपल हर कहीं
नहीं नहीं ये मेरा घर नहीं...
चल कहीं ये मेरा घर नहीं
कह लो चाहे पलायन ...
पलायन ही है हर कहीं
रे मन मेरे चल कहीं ... चल कहीं
Wednesday, November 19, 2008
अनावर्त
जो मैंने ओढ़ रखा
जग से छुपी कि आप से
ये कौन जाने सखा
साख्य की सौं तुम्हे
जो तुमने किसी से कहा
अस्तित्व मेरा ये
जबकि मेरा ही न रहा
फीर कोई क्यूँ कोई पूछे
क्या किससे और क्यूँ
रहा ढंका छुपा उघडा
दिखा कुछ और कुछ समझा
रचा कुछ और कुछ और बना
जो तुम्हे पता और मुझे पता
साख्य की सौं तुम्हे
जो तुमने किसी से कहा
Friday, November 14, 2008
सत्य वो नहीं जो है सन्मुख
स्मृति जो रही मुखर
खुला पिटारा पंछी फुर्र
तब क्यूँ रही निर्माल्य अच्छुण
धूल छंटे कब, अवसाद घटे अब
हो प्रत्यक्ष प्रमुख , अपने पर
न की समय के बल पर
प्रताक्ष्ता नहीं आधार प्रमुखता का
नहीं ये सत्य भले ही हो सन्मुख
Monday, November 10, 2008
एक टुकडा समय .... पूरी कथा
एक मेरे नम हुआ
पूरे पूरे इस आवरण ने
मुझे भी थोड़ा छुपा लिया
अधूरा दूर से लगा था मुझे
था असल मे बंटा हुआ
अंतराल फ़िर आवर्त हुआ तो
वो मुझको मिला कुछ हिला हुआ
चली थी मैं रुक नहीं सकी
और धीमे से ही सही... वो भी कुछ कदम चला
टुकडे फ़िर जब जोड़े तो...
जो भी कहा वो कथा हुआ
Friday, November 7, 2008
एक दिन
समय का ये भाग किलके मेरे अन्तरं मे
जो आद्र पवन छूती रही देर तक
बाद उसके की तड़प के फ़िर कब
भरे गूलरों से झरे इस पथ पर
एक दिन का चलाचल चुपचाप से
चहके पीलेपन से शरमाये से लाल मे
ये मेरा गमन फ़िर फ़िर से, इसी दिन से
धन्य से भरी मैं, रश्मियों से महकी
साँझ की उदासी से दूर, उजास के सूर्या के पास
वर्ष के इस दिन जिसे दिया है तुमने ( जैसे हर दिन से )
Tuesday, November 4, 2008
निद्रातम
छण के मिलन से विछिप्त
धधक का धू धू
स्फुरण जो स्वयम्भू
दृष्टि भर धूम
और पार का ताप
ताप ही ताप
जकड का स्पंदन
और छूटते की तपन
फ़िर जो बचे वो
धूम ही धूम
शांत .... अब शांत...
ये नहीं प्रकट... नहीं सत्य...
केवल है स्वप्न
जो चला झकझोर और फ़िर छोड़
रहा तुम्हारा निद्रातम
Monday, October 13, 2008
संशय
वो वैसे ही रहा पड़ा वहीँ का वहां
तुमने तो था उसे देखा, वो और उसका
अनचाहा प्रतिभूत... सिमट सहम
दृष्टी को तुम्हारी ही तरसा वो रोम रोम
निर्दिष्ट भावनाओ के लिए है ही क्या
उत्तरों की आस मे ये अस्तित्व
अनुत्तरित अनेक प्रश्नों के प्रतिबिम्ब
और उनके बीच
ये संशय मेरे ह्रदय का
चले कभी खींच और कभी भींच
Tuesday, September 30, 2008
पलायन फ़िर से
आशाओं के झंझा से दूर
प्रत्याशा के बोझ से मजबूर
मेरे मन का विद्रोह ये
छूटते अवसरों का प्रतिरोध
ये चुपचाप रुंदन
छोड़ अब...
जीवन चल पड़ाव नहीं अब
सामने बढ़ ... की बस चल ही चल
पलायन फ़िर से
बिखरे yऔवानो के परे
गूंजते कलरवों से दूर
अब बह बस बह...
और कल कल
पलायन है अस्तित्व से ही
अब से अब से
Wednesday, September 24, 2008
चाह गुम राह गुम
वो भूली बातें और बातों का व्यारा
वो गूंजे निशब्द
और शांत से अंतर्द्वंद
वो चलाचल का साथ
और साथ का दुराव
जब वो चले झुन झुन
जब वो गुमे गुम गुम
तुमने दिया जो थोड़ा कुछ
तुमसे लिया जो वो सब कुछ
ताक पर सब क्यूँ.... चाह ही गुम क्यूँ
राह जब बदली तो राह ही गुम क्यूँ.
Tuesday, September 2, 2008
जंत्र
दिन को झुठलाता धीमा आगमन
जैसे चुपचाप मे पुनर्वसन
धोया इतना धुला नहीं
करे बस तन ही आचमन
सरल नहीं कुछ कह लो कितना
जटिल जंत्र सा ये जीवन
Thursday, August 28, 2008
बहके ही बहके
बिखरी बिखरी सी तहें
उलझी उलझी सी लटें
छूटे छूते वो कहकहे
जाने कब के अनकहे
वो साथ रहें बस यही मन कहे
फ़िर फ़िर हम उनकी राह मुडे
कभी मन और कभी कदम चले
मिल मिल कर भी मिलाने को तरसे
कभी मह कभी नेह बरसे
किसे पता की हैं सधे या हैं बहके
Wednesday, August 27, 2008
संग का निस्संग
प्रणय के प्रतिछण, मैंने देखि तुम्हारी आस
रमण का मधुबन हुआ तुम्हारे बिन उदास
रहे वही पर अनछुए , जब चुने पर थर्राई
लता ने कह दी , जैसे मेरे मन की बात
रहे जो विचलित, कभी सशंकित, बिलखे अब तो ये प्रलाप
कहे मंजरी फूट फूट सारे अंगों मे आलाप
गुंजन मधुर था, जो जाने कब बना चीत्कार
रहे जो प्रिय मेरे बन, नहीं है बस का
संग रह निस्संग वास ...
Wednesday, July 23, 2008
करीब
खास हुए की बहुत रोज हो गए
कब कही थी कभी दिल की बात हमसे
कभी चुभी तब यूँ ही कही बात ... कबसे
कभी बहुत थे खुश कभी ग़मगीन हो गए
न चंद राहें आम सी होती
न चंद आहें राज की होती
कभी जो हम थे गुम और कभी मशहूर हो गए
किनारों पर खड़े देखने की आदत न थी
इक लहर से जो लड़े तो चूर हो रहे
Wednesday, July 2, 2008
बर्र और मधुमखी
बर्र ने मधुमख्ही से प्रश्न किया
तू भोंडी मैं सुघड़ नवेली
चमकदार हैं पर मेरे
फ़िर भी जाने क्यूँ नर मानस चर
गुन ग्राहक हैं बस तेरे
मतलब का है खेल सखी री
मतलब से ही सूझ
सुन मधुमख्ही ये कहती है
मैं देती हूँ मधु लोगों को
तू केवल दस लेती है
Thursday, May 15, 2008
अनजाने पन्ने मेरे घर मे
पन्नों की बिखरी तहें
खुली फिर फिर से,
हर तह एक कहानी
सुनी ख़ुद ही, ख़ुद कह के.
सुन्न वो हाँथ, कम्पित तन,
सशंकित मन,
समझाइश न जाने , किस किस से.
चलते द्वंद , भयंकर तम,
गूंजे भूकंप, प्रति स्वास मे.
कब हो प्रयाण ,
निश्चित कुछ ज्ञान,
कुछ जन, कुछ अनजान
अब रहे कब से, भूले कब से.
Thursday, April 17, 2008
Thursday, January 3, 2008
किस सावन के पैर पड़े
मन का कोना भरा मंजरियों से किलके
मेरे मन के आँगन मे जाने,
किस सावन के पैर पड़े
हर सावन के बाद हर कहीं फूल खिले
rat ka parijat
रजनीगंधा की गंध से सुवासित
धुली चाँदनी से आलोकित
ओस की बूंदों से नहाई
सुंदर शांत रात हुई
जागे सरे निशाचर , जग सोया तो रात हुई
कलियाँ chthaki, पवन बही तो रात हुई
ऐसी ही रातों मे जागूं और देखूं सब ही
मन ने जब जब ऐसा चाह रात हुई
रात्रि का सौन्दर्य निर्मल
दिवस से अधिक अनुपम
डूबी इस सौन्दर्य मे
आनंदाम्रित बरसा सचमुच रात हुई
pehchan
कितने चहरे, कितनी बातें,
कितने ही व्यक्तिव और कृतित्व
जानूं कितनों को और कितने मुझे जाने
अपने अंतरतम मे झान्कूं देखूं,
क्या जाना मैंने ख़ुद को?जानूं किसको,
ख़ुद से अनजान रह कर?
सब मुझे जाने ये चाहूँ कैसे?
ख़ुद ही ख़ुद को न जान कर.
ख़ुद को जानूं, तब उसको जानू,
तब कोई जाने न जाने मुझको
mera ankaha
जिसे मैंने किसी से न कहा
सबके अपने अपने श्रोता
और अपनी कथा
कहे हर कोई जिससे,
अपने मन की व्यथा
बन गई हूँ मैं ऐसा ही श्रोता
कहूं किससे अपनी बातें
कोई सुने वो अनकहा
जिसे मैं किसी से न कहा
mujhase bara mera aham
मैं जो कह दूँ चल पड़े सब ही अभी,
और जो कह दूँ मैं तो थम जाए वहीं,
उडून ऊंचा एक कर धरती गगन,
मैं बस मैं और मेरा अहम्
हो अगर विश्वास मन मे सीमा से ज्यादा,
क्या करेगा अहित या कि फायदा
अंत मे टूट न जाए रूककर सहम
मैं, मैं बस मैं और मेरा अहम्
कैसे रोकूँ? थामु इसे किस मोर पर?
और क्या ही मिल सकेगा लक्ष्य इसको रोक कर?
टूटे अगर है ये महज एक वहम
मैं, मैं बस मैं और मेरा अहम्
kya ho ek nishchint saath
सारे किलके चहक चहक तो क्यों मैं यूं निराश
मन का मेरे निशब्द और शब्दों को जितने का प्रयास
रुकने को चर जगत न मने, बस का नहीं ये सतत प्रयाण
थके रुके सब कोलाहल से दूर हो मेरा वास
किंतु निस्संग, अनुत्तरित, स्वयं पर ही न हो जाए आधार
समय सरित ने कहा की बह चल, चलने मे ही है आस
अब और नहीं एकाकी, इच्छित है एक निश्चिंत साथ
meri iti
लय होता है मन मेरा
सागर सम होने को इस तल मे खोने को
चाहे अब तो मन मेरा
विशालता और गहराई, जो न नापी जाए
थाह उसकी पाने को चाहे अब तो मन मेरा
या तो जानू तत्व को इसके
या हो जाऊं मैं भी यही
चाहूँ ये ही हो मेरी अंत इति
pehali boonden varsha ki
जैसी पहली वर्षा की बूँदें पड़ी
साम्य ढूंढो यदि तो कैसा साम्य
गोल गोल दोनों हैं तो,
दोनों ही परिणाम लम्बी लम्बी, तप्त दुपहरी और उमस भरी रातों का
जीतनी बढाती गरमी उतनी ही देखो तो
बढ़ी कलियाँ और गिरी बूँदें
खिलते ही इनके फैले सुवास, और गिरते ही इनके भुझे प्यास
सुवास को भर तृप्त क्या हुआ मन
क्या बुझी तप्त ह्रदय की अमित प्यास
जैसे कलियों के खिलते ही, कहीं गिरी हो पहली बूँदें वर्षा की
khoya ya paya
फिसला वो हाथों से, जितना भी पकड़ा
हाँथ कसे और भृकुटी भी, की क्यों इतना भागे है
पता नहीं जो बीत गया, क्या उतना ही आगे है
क्या जाना तुमने अब तक? ये जब किसी ने पूछा
क्या जाना मैंने? ये तब ही मैंने भी सोचा
अरे सुनो, नहीं मैं ग्यानी, ग्यान का डंका भले ही मैंने पीटा
अरे सुनो, नहीं मैं विचारक, विचार जाए भले ही दूर मेरा,
पढ़ा है मैंने, सुना है मैं, और अपना भी कुछ उसमे जोडा ,
फ़िर भी जब कुछ नया सुना, लगा कि कितना कम मैंने है जाना,
भागा jईवन मेरा , मैं भी उसके पीछे भागी
जितना जहाँ से पकड़ मे आया साथ संजोया,
पता नहीं इस भागमभाग मे मेरा क्या हो पाया
जान सकूं तो ख़ुद को जानू, मान सकूं तो उसको मानु
फ़िर क्यों रखूं हिसाब की क्या खोया पाया
jana kahan
स्मृतियों मे मेरी जैसे खलबली मची
उफने कुछ और बह जाए
ठहरे कभी और बढ़ जाए
तडित की गति से त्वरित कभी
कभी केचुए से भी मंद
कोलाहल मन को ले जाए कहीं
और संशय फ़िर ला पटके वहीं
आदि कहीं और अंत कभी
संकल्पों और विकल्पों के बीच,
नीर दिखे हर मोड़ अभी
और मोड़ के पार है जाना कहीं
samay chala fisalata
सुख सरित सा जो झर रहा,दुःख ले जा सिरा रहा,
आज है जो कल नहीं, आगे मिलेगा क्या कभी,
यह बात समझा हमको रहा,
समय के अतिरिक्त वो कौन हो सकता भला
वह जो कभी रुकता नहीं,वह जो कभी थकता नहीं,
हो पथ विकट रास्ता विरल
जो बस चला ही जा रहा
समय के अतिरिक्त वो कौन हो सकता भला
न लक्ष्य जिसका कीर्ति
न ही वो पूजित मूर्ती
आदर्श हो, आदेश हो, या हो अनुरोध कोई
वो जो सभी को टलता,हांथों फिसलता जा रहा
समय के अतिरिक्त वो कौन हो सकता भला.
bas ye na ho
देखकर भी जो आँखों ने देखा न हो
दिन बीते कब और कब अगली सुबह हो
रत का इस बीच कुछ पता न हो
कह के ऐसा कुछ जो अब तक सुना न हो
मेरी आँखे नम और दिल शर्मिंदा न हो
जागे बिना, सोये बिना, अलसाये से,
ठंड मे, रजाई मे, धूप मे, बारिश मे,
संग मे, अकेले मे, पड़े रहना .
बात मे और चुप मे अनमनाये हुए,
सुन कर अनसुना कर, बातों को सुनाये हुए, लड़े रहना
धीरे बजाते सुरों मे, तेज से बेसुरों मे,
चढ़ते दिन के अहेसस मे, उसे भूलने की चाह मे,
समय की चाल मे, उसके रुक जाने के ख्याल मे लगे रहना
सफ़ेद से परदों मे, लाल से बिस्तर मे, नीली सी चटाई मे घर बुनना.
पापा के पलंग को, माँ की साडी को dहूधना .
कुछ पाना, रोज कुछ खोना
रविवार की सुबह को अकेले मे रोना(हँसना)
फ़िर जग पड़ना और कम पर लगना.
शाम का घिर आना, भाई का जाना,
और फ़िर अकेले रह जाना
alhadit hun jo priya ka sang
बस एक छण,
जिसे जाए न रोका,
जो हो अनकोसा,
जिस छण की त्वरा मे मग्न,
हो हर छण,
जिसकी राह तके हर प्राण मन.
जीवन के हर उस छण,
आल्हादित ये संसार,
हर उस छण, जिसमे प्रिय का संग.
tum chale gaye II
ह्रदय ने मेरे जैसे मुझको ही छला,
वो अनकहा जो फ़िर भी रहा अनकहा,
निस्शब्द का गुंजन धीमा- धीमा,
न सही मैंने कहा,
किंतु क्या तुमने भी न सुना,
ह्रदय न जाने कैसे झंझावातो से छलका,
कुछ मधुर कुछ कटु रस चला बहता,
क्या सच तुमने कुछ भी नहीं सुना.
anischit ye sang
कहो अनिश्चित क्यों है संग
कितनी ही रातों मे, किस किस की बातों मे,
उलझी मन की उलझन.
तुम्हारा प्रयाण जैसे पतंग,
और मेरा ये निस्संग.
झर के जीवन कहता बह चल.
तुम चले के जैसे मद मे मतंग,
पीछे छूटा सूना अंक,
डसे विरह का जैसे डंक,
लगे फीका हर रंग.
क्यों अनिश्चित अपना संग...
कहो क्यों अनिश्चित अपना संग...
kya likha kya mita
था जो कब मिट गया...
अब खामोशियाँ ही सही.....
बाकि कुछ भी नहीं....
जाने कब चल पड़े.....
थे रुके कारवां.....
चुक गए सरे लम्हे....
रहे जब दरमियाँ....
रेत पर ही लिखा.....
था जो सब मिट गया...
neela sa man
नीला तन, नीला ही मन.
दुःख भरा और उदास,
नही जिसे आस उजास.
यह है बस रात ही रात.
और सूनी रातों की बात.
नीला ही है मन, नीला ही तन.
neela sa man
neela tan, neela hi man.
dukh bhara aur udas,
nahi jise aas ujas.
yeh hai bas rat hi rat.
aur sooni raton ki bat.
neela hi hai man, neela hi tan.
tum hue gumsum
कहने को कुछ नहीं, की ख़बर ही नहीं
सुन सकूं अनकहा ऐसी मैं भी कहाँ,
जान मैं न सकी, जाने सारा जहाँ.
कल कहा कल कहूं, जाने कैसे सहूँ.
दूर तुम जो गए, दूर है कह कहा.
दूर है हर हँसी, दूर ही हर खुशी.
दुःख नहीं पर कहीं, दूरी का एहसास ये,
है दबा, और मन ये है बुझा ही बुझा.
tum chale gaye
ह्रदय ने जैसे मेरे, मुझको ही छला.
तड़प विरह की, कौतुक संग का,
dard अकेलेपन का, और भी हुआ हरा.
सहमी स्वाभाव की, वो चंचला.
रुका सदा का मेरा, वो कहकहा.
तुमने भी न सुना, न मुझसे गया कहा.
तुम चले गए तो लगा, की जैसे जग चला.
ह्रदय ने जैसे मेरे, मुझको ही छल.
bhooli main
हाँथ मेरा तुमने इतनी बार छोडा, मैं तुम्हे साथ चलाना भूल गई.
मुझको तुम्हारी कमजोरी कभी न भाई,पर ताकत तुमने मुझ पर ही आजमाई.
पीछे अब न आऊँगी बुला अब कितना ही, झिड़का है तुमने ऐसा,की दुलार तुम्हारा भूल गई।
सम्मान को मेरे यो न कुचालो, कहा कितना तुम्हे,
तुमने संम्मान खोया, मैं तुम्हारा आदर करना भूल गई.
जाओ अब नहीं करती याद कुछ भी, मैं वो अब सब बातें पुरानी भूल गई.
मन मे जो एक sमिरुती है वों कराती सब ही,कैसे कह दूँ मैं तुम्हे यद् करना भूल गई.
चाशनी सी घुलती वो आवाज,फीकेपन का अहेसस बस उसके ही बाद,
हर चाय मे यूं चीनी कम क्यों हो...
तीखा तीखा सा दिन, और चुभती सी ये रात,
उनींद के वो दोपहर, और बहकी से वो शाम,
बाद ख़त्म होने के याद वो जाम क्यों हो....
घनेरे छाए मेघों के बीच तू था,भीगने से बचने मे,
और भीग जाने मे भी तू था,
भीगे बदन आज मुलाकात की कसक क्यों हो...
शूल जब तुने चुभाया तो लगा मीठा,फूल जब तुने रिझाया तो लगा महका,
महकी हुई हर सौगात पर तेरी याद क्यों हो....
कभी कहीं से शुरु, और कभी कहीं पे ख़त्म,
छूटे से अनकहे हजारों किस्से और उनके पूरे न होने की चुभन,
बाद बीत जाने के फिर कोई पैगाम क्यों हो.....
तुम वो सुबह की किरण,तुम वो मचली सी पवन,
तुमसे लौटा था मेरा बचपन, तुमसे जिया फिर से लड़कपन,
डरी हुई सी उस लड़की का, डरा सा चेहरा फिर आज ही क्यों हो...
तेरे दर को छोड़ा जान कर,तेरे घर को पराया मान कर,
तेरे मन मे पता नहीं, कभी कोई एहसास हो न हो......