Monday, April 20, 2009

सिरा जो सरका

सिरा ... सर ... सर सरका
कभी पकड़ा कस कर
कभी बस यूँ ही छूटा
विचारों का तो कभी न पकड़ा
आचार का भी हाँथ न आया
अपने चारों ओर लिपटाया
बांधा सहेजा और रोका
पर जब जब डुलाया
ढुलता ही गया
न रुका... रोका न गया
नार सा पड़ा कभी
दिखा लिटा, पर छूटे ही रपटा
थक ने कही अब बस कर... बहुत
पर न उसने सुना न रुका
अब दूर हटा और मन छिटका
देख इसे क्या वो ढिढका
नही नहीं , कभी नहीं

अरे सिरे का सार तभी तक
सरका वो जब तक सर सर...