छनभर को बैठा और साँझ हुई
स्मृतियों मे मेरी जैसे खलबली मची
उफने कुछ और बह जाए
ठहरे कभी और बढ़ जाए
तडित की गति से त्वरित कभी
कभी केचुए से भी मंद
कोलाहल मन को ले जाए कहीं
और संशय फ़िर ला पटके वहीं
आदि कहीं और अंत कभी
संकल्पों और विकल्पों के बीच,
नीर दिखे हर मोड़ अभी
और मोड़ के पार है जाना कहीं
Thursday, January 3, 2008
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