Tuesday, March 8, 2011

तुम्हारी धूप

री धूप छनी, छन कर गिरी,

तीखी अब तक हुई नहीं

सोह सोह , सोह के सोखी

पूरे तन को गरमाई, जब जब मैं इसमे नहाई,

छू गई और अंतर मे समाई

कभी तो लगी भली

कभी तनिक न सुहाई

मेरे मन मे प्रिय के संग सी

प्रिय के बिना भला क्यूँ आई

छुपी दुबकी मैं बची इस से अब भागी

नहीं नहीं बिन तुम मुझे धुप न भाई