Sunday, January 7, 2018

ये दिन छुपाव का

आज का ये दिन ढल गया है
और बहुत से दिनों की तरह
और ये रात  चली आयी है
बिन बुलाये जैसे हर बार
कुछ चाह  के भी भला हुआ करता है
अब ये नहीं आएगा वापस
जो भी इसमें था वो सब कुछ
चला गया है इसके साथ
सरके हुए सिरे की तरह
फिसलते से जल को कभी रोका गया है
ढुलते हुए कपोलों पे फिसला है
धरा की रेखा की सी उभर आयी है
और लालिमा घिर आयी है
थके नयनो के कोरों पर
छुपाव से भी कभी क्या हुआ है  

Friday, November 10, 2017

चलते हुए मुड़ना नहीं

जब तुम जाओ , चलते हुए मुड़ना नहीं...
मेरे बारे में सोचना,
जानना की मैं तुम्हारी ओर ही ताकती होऊँगी।
पर तुम चलना अपनी ही डगर ,

जब हमारे पथ मिलें कभी
मुझे फिर उतना ही सम्मान देना
फिर वही मान करना मेरा
पर मेरे साथ चलने की हठ न करना

मेरे मन और तुम्हारे मन में ये सब रखना
अपने उच्छवासों को किसी से न जतलाना
बस अच्छी स्मृति रखना
साथ की आकांक्षाएं न करना

चलते हुए मुड़ना नहीं
अपनी डगर चलते ही रहना 

Wednesday, March 15, 2017

संकेत से बोध

 शून्यता का आभास सांकेतिक है
यह संकेत है जीवन के अपूर्णता का
यह पूर्णता का प्रतिबिम्ब भी है
यह समय की सत्यता का प्रतीक है
एवं निर्जीवता का साक्षी भी है
यह है वह छण प्रिय के संग का
और यही है सतत विछोह का
यह वह बिंदु है जिस पर ज्या चली
और यही उस परिधि की धुरी

शून्यता का आभास सांकेतिक है
यह मृदा की मृदुता एवं सुगंध है
यही मन में जमी मृदा का उच्छवास है

यह संकेत छण भंगुर है रहता नहीं
नष्ट हुए संकेत भी शून्य ही हैं
शून्यता के बोध में संकेत नहीं है
क्योंकि तब सब ही शून्य में लय है 

Sunday, January 8, 2012

रात की रानी

मुरझाई, कुम्हलाई, फिर तुमने सहलाई
छुअन भर से भरभराई  और इतराई
झरी कभी थी अब यौवन से भरी
फूली और सारी रैन महकी
हिया हरषाई प्रिय को भाई
री रात की रानी बड़ी सुहाई 

Tuesday, March 8, 2011

तुम्हारी धूप

री धूप छनी, छन कर गिरी,

तीखी अब तक हुई नहीं

सोह सोह , सोह के सोखी

पूरे तन को गरमाई, जब जब मैं इसमे नहाई,

छू गई और अंतर मे समाई

कभी तो लगी भली

कभी तनिक न सुहाई

मेरे मन मे प्रिय के संग सी

प्रिय के बिना भला क्यूँ आई

छुपी दुबकी मैं बची इस से अब भागी

नहीं नहीं बिन तुम मुझे धुप न भाई

Friday, February 4, 2011

दर्पण मैं तेरा

मैं तेरा दर्पण हूँ जब मैंने कहा
तो उसने कहा की तुने कैसे ये जाना
जब तक मैंने न तुझको दर्पण माना
मुस्काए लजाये मैंने हाँथ डाले…
धीमे से… ध्यान से
उसे उसकी छबी दिखाई अपने अंतर मे
तो बोला अरे ये तो है सुन्दर दर्पण
फिर बोला मेरी छबी ही है सुन्दर
मन हिलोरे ले के बोला…
चाहे छबी के कारण…
चाहे अपने अभिमान के करना
कैसे सही तुमने अंततः
मुझे अपना दर्पण तो माना

Monday, July 5, 2010

सांवरी

झुके नयन, जैसे नत डाली,
झुकाए जिसे,बरखा मतवाली,
रोके जल को, पल पल्लवों मे,
झराए तब ही, जब भावो से झकझोरी

स्नेह से स्निग्ध, कपोल अधर सब,
भीगे पसीजे से, बरखा तर सो ही
वसित आज के और , कल के लिए भी,
जैसे सहेजे ताल औ पोखरी,

गोरी चले जब तन झुक तन, कभी
जैसे मद सावन का या की माया सांवरी की