जब पार किए थे बीस वर्ष, तो समय लगा था बड़ा
फिसला वो हाथों से, जितना भी पकड़ा
हाँथ कसे और भृकुटी भी, की क्यों इतना भागे है
पता नहीं जो बीत गया, क्या उतना ही आगे है
क्या जाना तुमने अब तक? ये जब किसी ने पूछा
क्या जाना मैंने? ये तब ही मैंने भी सोचा
अरे सुनो, नहीं मैं ग्यानी, ग्यान का डंका भले ही मैंने पीटा
अरे सुनो, नहीं मैं विचारक, विचार जाए भले ही दूर मेरा,
पढ़ा है मैंने, सुना है मैं, और अपना भी कुछ उसमे जोडा ,
फ़िर भी जब कुछ नया सुना, लगा कि कितना कम मैंने है जाना,
भागा jईवन मेरा , मैं भी उसके पीछे भागी
जितना जहाँ से पकड़ मे आया साथ संजोया,
पता नहीं इस भागमभाग मे मेरा क्या हो पाया
जान सकूं तो ख़ुद को जानू, मान सकूं तो उसको मानु
फ़िर क्यों रखूं हिसाब की क्या खोया पाया
Thursday, January 3, 2008
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