Friday, November 14, 2008

सत्य वो नहीं जो है सन्मुख

कैसे कहें की प्रत्यक्ष प्रमुख
स्मृति जो रही मुखर
खुला पिटारा पंछी फुर्र
तब क्यूँ रही निर्माल्य अच्छुण
धूल छंटे कब, अवसाद घटे अब
हो प्रत्यक्ष प्रमुख , अपने पर
न की समय के बल पर
प्रताक्ष्ता नहीं आधार प्रमुखता का
नहीं ये सत्य भले ही हो सन्मुख

3 comments:

Unknown said...

बहुत सुंदर लिखा है. जो सन्मुख है उसमें सत्य झलकता है पर हम उसे देख नहीं पाते. पर जैसे ही हमें उस का ज्ञान होता सब कुछ साफ़ दिखाई देने लगता है.

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

रचना काफी अच्छी है ...और भाव भी काफी गहरे....मगर कठिन हिन्दी टाइप करते वक्त आपको उचित टाइपिंग करनी होगी...क्यूंकि सरल हिन्दी के शब्द अगर ग़लत भी लिखे जायें तो समझ में आ जाते हैं...मगर कठिन हिन्दी को हुबहू वही शब्द चाहिए होते हैं...जिससे सही भाव व्यक्त हो...टाइपिंग-मात्र की गलती की वजह से सब्द-संयोजन गडबडा जाता है....और इसीसे अर्थ भी...या सही शब्द समझने की चेष्टा के कारण प्रवाह बाधित हो जाता है....आशा है.....आप अन्यथा...

nehasaraswt said...

jee bhootnath ji... hindi likhate hue ye takleef humesha rehati hai... main swayam isaka koi hal dhoodhane ki koshish kar rahi hun... taki jo likha jaye wahi aap tak pahunche