Tuesday, March 8, 2011

तुम्हारी धूप

री धूप छनी, छन कर गिरी,

तीखी अब तक हुई नहीं

सोह सोह , सोह के सोखी

पूरे तन को गरमाई, जब जब मैं इसमे नहाई,

छू गई और अंतर मे समाई

कभी तो लगी भली

कभी तनिक न सुहाई

मेरे मन मे प्रिय के संग सी

प्रिय के बिना भला क्यूँ आई

छुपी दुबकी मैं बची इस से अब भागी

नहीं नहीं बिन तुम मुझे धुप न भाई

Friday, February 4, 2011

दर्पण मैं तेरा

मैं तेरा दर्पण हूँ जब मैंने कहा
तो उसने कहा की तुने कैसे ये जाना
जब तक मैंने न तुझको दर्पण माना
मुस्काए लजाये मैंने हाँथ डाले…
धीमे से… ध्यान से
उसे उसकी छबी दिखाई अपने अंतर मे
तो बोला अरे ये तो है सुन्दर दर्पण
फिर बोला मेरी छबी ही है सुन्दर
मन हिलोरे ले के बोला…
चाहे छबी के कारण…
चाहे अपने अभिमान के करना
कैसे सही तुमने अंततः
मुझे अपना दर्पण तो माना