वर्ष का ये एक दिन जो दिया तुमने
समय का ये भाग किलके मेरे अन्तरं मे
जो आद्र पवन छूती रही देर तक
बाद उसके की तड़प के फ़िर कब
भरे गूलरों से झरे इस पथ पर
एक दिन का चलाचल चुपचाप से
चहके पीलेपन से शरमाये से लाल मे
ये मेरा गमन फ़िर फ़िर से, इसी दिन से
धन्य से भरी मैं, रश्मियों से महकी
साँझ की उदासी से दूर, उजास के सूर्या के पास
वर्ष के इस दिन जिसे दिया है तुमने ( जैसे हर दिन से )
Friday, November 7, 2008
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