सम्बन्ध जो स्फूर्दीप्त
छण के मिलन से विछिप्त
धधक का धू धू
स्फुरण जो स्वयम्भू
दृष्टि भर धूम
और पार का ताप
ताप ही ताप
जकड का स्पंदन
और छूटते की तपन
फ़िर जो बचे वो
धूम ही धूम
शांत .... अब शांत...
ये नहीं प्रकट... नहीं सत्य...
केवल है स्वप्न
जो चला झकझोर और फ़िर छोड़
रहा तुम्हारा निद्रातम
Tuesday, November 4, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
वाह!! बहुत सुन्दर!
dhanyawad hai ji
Post a Comment