Tuesday, March 3, 2009

धूप सी

छ्न छ्न के चौखट सी
गिरी धुप चाँदनी पे उजली
ऊष्ण ऊष्ण हुए जो रोम
रोम जो उड़ कर बिखरी
तरल की ऐसी बह जायेगी
विरल ये हाँथ नहीं आएगी
कभी तो बांहों बिछ जायेगी
कभी दूर सिमट जायेगी
अनुराग से रोको
बंधो वाष्प बन
मेघ सा घेरो तो
रहेगी तुम्हारी बन

आज का जड़ और कल का जर

सब्द मेरे जड़ तो क्या
जीवन्तता नश्वर तो नहीं
सानिध्य मेरा अपर हो सही
मित्रता का हेतु हो वही
धीमे धीमे का ये झरण
किलके जीवों का ये जर
पीछे इस गाजरी सिन्दूरी के
छिपा अंधेरे का कालापन
तुम हो तो मैं क्यूँ जड़
फ़िर क्यूँ हो मुझको डर
की आज का जड़ और कल का जर