Thursday, January 3, 2008

kya ho ek nishchint saath

सावन ये झर झर और मेरे मन का उदास
सारे किलके चहक चहक तो क्यों मैं यूं निराश
मन का मेरे निशब्द और शब्दों को जितने का प्रयास
रुकने को चर जगत न मने, बस का नहीं ये सतत प्रयाण
थके रुके सब कोलाहल से दूर हो मेरा वास
किंतु निस्संग, अनुत्तरित, स्वयं पर ही न हो जाए आधार
समय सरित ने कहा की बह चल, चलने मे ही है आस
अब और नहीं एकाकी, इच्छित है एक निश्चिंत साथ

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