सावन ये झर झर और मेरे मन का उदास
सारे किलके चहक चहक तो क्यों मैं यूं निराश
मन का मेरे निशब्द और शब्दों को जितने का प्रयास
रुकने को चर जगत न मने, बस का नहीं ये सतत प्रयाण
थके रुके सब कोलाहल से दूर हो मेरा वास
किंतु निस्संग, अनुत्तरित, स्वयं पर ही न हो जाए आधार
समय सरित ने कहा की बह चल, चलने मे ही है आस
अब और नहीं एकाकी, इच्छित है एक निश्चिंत साथ
Thursday, January 3, 2008
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