मैं, मैं बस मैं, और मेरा अहम्
मैं जो कह दूँ चल पड़े सब ही अभी,
और जो कह दूँ मैं तो थम जाए वहीं,
उडून ऊंचा एक कर धरती गगन,
मैं बस मैं और मेरा अहम्
हो अगर विश्वास मन मे सीमा से ज्यादा,
क्या करेगा अहित या कि फायदा
अंत मे टूट न जाए रूककर सहम
मैं, मैं बस मैं और मेरा अहम्
कैसे रोकूँ? थामु इसे किस मोर पर?
और क्या ही मिल सकेगा लक्ष्य इसको रोक कर?
टूटे अगर है ये महज एक वहम
मैं, मैं बस मैं और मेरा अहम्
Thursday, January 3, 2008
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