Tuesday, September 30, 2008

पलायन फ़िर से

पलायन फ़िर से,
आशाओं के झंझा से दूर
प्रत्याशा के बोझ से मजबूर
मेरे मन का विद्रोह ये
छूटते अवसरों का प्रतिरोध
ये चुपचाप रुंदन
छोड़ अब...
जीवन चल पड़ाव नहीं अब
सामने बढ़ ... की बस चल ही चल
पलायन फ़िर से
बिखरे yऔवानो के परे
गूंजते कलरवों से दूर
अब बह बस बह...
और कल कल
पलायन है अस्तित्व से ही
अब से अब से

Wednesday, September 24, 2008

चाह गुम राह गुम

वो रात के चार कदम आवारा
वो भूली बातें और बातों का व्यारा
वो गूंजे निशब्द
और शांत से अंतर्द्वंद
वो चलाचल का साथ
और साथ का दुराव
जब वो चले झुन झुन
जब वो गुमे गुम गुम
तुमने दिया जो थोड़ा कुछ
तुमसे लिया जो वो सब कुछ
ताक पर सब क्यूँ.... चाह ही गुम क्यूँ
राह जब बदली तो राह ही गुम क्यूँ.

Tuesday, September 2, 2008

जंत्र

साँझ के धुंधलके का वो कालापन
दिन को झुठलाता धीमा आगमन
जैसे चुपचाप मे पुनर्वसन
धोया इतना धुला नहीं
करे बस तन ही आचमन
सरल नहीं कुछ कह लो कितना
जटिल जंत्र सा ये जीवन