हर सावन के बाद हर कहीं फूल खिले
मन का कोना भरा मंजरियों से किलके
मेरे मन के आँगन मे जाने,
किस सावन के पैर पड़े
हर सावन के बाद हर कहीं फूल खिले
Thursday, January 3, 2008
rat ka parijat
पारिजात फूला तो रात हुई
रजनीगंधा की गंध से सुवासित
धुली चाँदनी से आलोकित
ओस की बूंदों से नहाई
सुंदर शांत रात हुई
जागे सरे निशाचर , जग सोया तो रात हुई
कलियाँ chthaki, पवन बही तो रात हुई
ऐसी ही रातों मे जागूं और देखूं सब ही
मन ने जब जब ऐसा चाह रात हुई
रात्रि का सौन्दर्य निर्मल
दिवस से अधिक अनुपम
डूबी इस सौन्दर्य मे
आनंदाम्रित बरसा सचमुच रात हुई
रजनीगंधा की गंध से सुवासित
धुली चाँदनी से आलोकित
ओस की बूंदों से नहाई
सुंदर शांत रात हुई
जागे सरे निशाचर , जग सोया तो रात हुई
कलियाँ chthaki, पवन बही तो रात हुई
ऐसी ही रातों मे जागूं और देखूं सब ही
मन ने जब जब ऐसा चाह रात हुई
रात्रि का सौन्दर्य निर्मल
दिवस से अधिक अनुपम
डूबी इस सौन्दर्य मे
आनंदाम्रित बरसा सचमुच रात हुई
pehchan
मैं कितनों को जानती हूँ
कितने चहरे, कितनी बातें,
कितने ही व्यक्तिव और कृतित्व
जानूं कितनों को और कितने मुझे जाने
अपने अंतरतम मे झान्कूं देखूं,
क्या जाना मैंने ख़ुद को?जानूं किसको,
ख़ुद से अनजान रह कर?
सब मुझे जाने ये चाहूँ कैसे?
ख़ुद ही ख़ुद को न जान कर.
ख़ुद को जानूं, तब उसको जानू,
तब कोई जाने न जाने मुझको
कितने चहरे, कितनी बातें,
कितने ही व्यक्तिव और कृतित्व
जानूं कितनों को और कितने मुझे जाने
अपने अंतरतम मे झान्कूं देखूं,
क्या जाना मैंने ख़ुद को?जानूं किसको,
ख़ुद से अनजान रह कर?
सब मुझे जाने ये चाहूँ कैसे?
ख़ुद ही ख़ुद को न जान कर.
ख़ुद को जानूं, तब उसको जानू,
तब कोई जाने न जाने मुझको
mera ankaha
कोई सुने वो अनकहा
जिसे मैंने किसी से न कहा
सबके अपने अपने श्रोता
और अपनी कथा
कहे हर कोई जिससे,
अपने मन की व्यथा
बन गई हूँ मैं ऐसा ही श्रोता
कहूं किससे अपनी बातें
कोई सुने वो अनकहा
जिसे मैं किसी से न कहा
जिसे मैंने किसी से न कहा
सबके अपने अपने श्रोता
और अपनी कथा
कहे हर कोई जिससे,
अपने मन की व्यथा
बन गई हूँ मैं ऐसा ही श्रोता
कहूं किससे अपनी बातें
कोई सुने वो अनकहा
जिसे मैं किसी से न कहा
mujhase bara mera aham
मैं, मैं बस मैं, और मेरा अहम्
मैं जो कह दूँ चल पड़े सब ही अभी,
और जो कह दूँ मैं तो थम जाए वहीं,
उडून ऊंचा एक कर धरती गगन,
मैं बस मैं और मेरा अहम्
हो अगर विश्वास मन मे सीमा से ज्यादा,
क्या करेगा अहित या कि फायदा
अंत मे टूट न जाए रूककर सहम
मैं, मैं बस मैं और मेरा अहम्
कैसे रोकूँ? थामु इसे किस मोर पर?
और क्या ही मिल सकेगा लक्ष्य इसको रोक कर?
टूटे अगर है ये महज एक वहम
मैं, मैं बस मैं और मेरा अहम्
मैं जो कह दूँ चल पड़े सब ही अभी,
और जो कह दूँ मैं तो थम जाए वहीं,
उडून ऊंचा एक कर धरती गगन,
मैं बस मैं और मेरा अहम्
हो अगर विश्वास मन मे सीमा से ज्यादा,
क्या करेगा अहित या कि फायदा
अंत मे टूट न जाए रूककर सहम
मैं, मैं बस मैं और मेरा अहम्
कैसे रोकूँ? थामु इसे किस मोर पर?
और क्या ही मिल सकेगा लक्ष्य इसको रोक कर?
टूटे अगर है ये महज एक वहम
मैं, मैं बस मैं और मेरा अहम्
kya ho ek nishchint saath
सावन ये झर झर और मेरे मन का उदास
सारे किलके चहक चहक तो क्यों मैं यूं निराश
मन का मेरे निशब्द और शब्दों को जितने का प्रयास
रुकने को चर जगत न मने, बस का नहीं ये सतत प्रयाण
थके रुके सब कोलाहल से दूर हो मेरा वास
किंतु निस्संग, अनुत्तरित, स्वयं पर ही न हो जाए आधार
समय सरित ने कहा की बह चल, चलने मे ही है आस
अब और नहीं एकाकी, इच्छित है एक निश्चिंत साथ
सारे किलके चहक चहक तो क्यों मैं यूं निराश
मन का मेरे निशब्द और शब्दों को जितने का प्रयास
रुकने को चर जगत न मने, बस का नहीं ये सतत प्रयाण
थके रुके सब कोलाहल से दूर हो मेरा वास
किंतु निस्संग, अनुत्तरित, स्वयं पर ही न हो जाए आधार
समय सरित ने कहा की बह चल, चलने मे ही है आस
अब और नहीं एकाकी, इच्छित है एक निश्चिंत साथ
meri iti
जल ही जल है, जल का तल है
लय होता है मन मेरा
सागर सम होने को इस तल मे खोने को
चाहे अब तो मन मेरा
विशालता और गहराई, जो न नापी जाए
थाह उसकी पाने को चाहे अब तो मन मेरा
या तो जानू तत्व को इसके
या हो जाऊं मैं भी यही
चाहूँ ये ही हो मेरी अंत इति
लय होता है मन मेरा
सागर सम होने को इस तल मे खोने को
चाहे अब तो मन मेरा
विशालता और गहराई, जो न नापी जाए
थाह उसकी पाने को चाहे अब तो मन मेरा
या तो जानू तत्व को इसके
या हो जाऊं मैं भी यही
चाहूँ ये ही हो मेरी अंत इति
pehali boonden varsha ki
मोगरे की कलियाँ देखो बड़ी बड़ी
जैसी पहली वर्षा की बूँदें पड़ी
साम्य ढूंढो यदि तो कैसा साम्य
गोल गोल दोनों हैं तो,
दोनों ही परिणाम लम्बी लम्बी, तप्त दुपहरी और उमस भरी रातों का
जीतनी बढाती गरमी उतनी ही देखो तो
बढ़ी कलियाँ और गिरी बूँदें
खिलते ही इनके फैले सुवास, और गिरते ही इनके भुझे प्यास
सुवास को भर तृप्त क्या हुआ मन
क्या बुझी तप्त ह्रदय की अमित प्यास
जैसे कलियों के खिलते ही, कहीं गिरी हो पहली बूँदें वर्षा की
जैसी पहली वर्षा की बूँदें पड़ी
साम्य ढूंढो यदि तो कैसा साम्य
गोल गोल दोनों हैं तो,
दोनों ही परिणाम लम्बी लम्बी, तप्त दुपहरी और उमस भरी रातों का
जीतनी बढाती गरमी उतनी ही देखो तो
बढ़ी कलियाँ और गिरी बूँदें
खिलते ही इनके फैले सुवास, और गिरते ही इनके भुझे प्यास
सुवास को भर तृप्त क्या हुआ मन
क्या बुझी तप्त ह्रदय की अमित प्यास
जैसे कलियों के खिलते ही, कहीं गिरी हो पहली बूँदें वर्षा की
khoya ya paya
जब पार किए थे बीस वर्ष, तो समय लगा था बड़ा
फिसला वो हाथों से, जितना भी पकड़ा
हाँथ कसे और भृकुटी भी, की क्यों इतना भागे है
पता नहीं जो बीत गया, क्या उतना ही आगे है
क्या जाना तुमने अब तक? ये जब किसी ने पूछा
क्या जाना मैंने? ये तब ही मैंने भी सोचा
अरे सुनो, नहीं मैं ग्यानी, ग्यान का डंका भले ही मैंने पीटा
अरे सुनो, नहीं मैं विचारक, विचार जाए भले ही दूर मेरा,
पढ़ा है मैंने, सुना है मैं, और अपना भी कुछ उसमे जोडा ,
फ़िर भी जब कुछ नया सुना, लगा कि कितना कम मैंने है जाना,
भागा jईवन मेरा , मैं भी उसके पीछे भागी
जितना जहाँ से पकड़ मे आया साथ संजोया,
पता नहीं इस भागमभाग मे मेरा क्या हो पाया
जान सकूं तो ख़ुद को जानू, मान सकूं तो उसको मानु
फ़िर क्यों रखूं हिसाब की क्या खोया पाया
फिसला वो हाथों से, जितना भी पकड़ा
हाँथ कसे और भृकुटी भी, की क्यों इतना भागे है
पता नहीं जो बीत गया, क्या उतना ही आगे है
क्या जाना तुमने अब तक? ये जब किसी ने पूछा
क्या जाना मैंने? ये तब ही मैंने भी सोचा
अरे सुनो, नहीं मैं ग्यानी, ग्यान का डंका भले ही मैंने पीटा
अरे सुनो, नहीं मैं विचारक, विचार जाए भले ही दूर मेरा,
पढ़ा है मैंने, सुना है मैं, और अपना भी कुछ उसमे जोडा ,
फ़िर भी जब कुछ नया सुना, लगा कि कितना कम मैंने है जाना,
भागा jईवन मेरा , मैं भी उसके पीछे भागी
जितना जहाँ से पकड़ मे आया साथ संजोया,
पता नहीं इस भागमभाग मे मेरा क्या हो पाया
जान सकूं तो ख़ुद को जानू, मान सकूं तो उसको मानु
फ़िर क्यों रखूं हिसाब की क्या खोया पाया
jana kahan
छनभर को बैठा और साँझ हुई
स्मृतियों मे मेरी जैसे खलबली मची
उफने कुछ और बह जाए
ठहरे कभी और बढ़ जाए
तडित की गति से त्वरित कभी
कभी केचुए से भी मंद
कोलाहल मन को ले जाए कहीं
और संशय फ़िर ला पटके वहीं
आदि कहीं और अंत कभी
संकल्पों और विकल्पों के बीच,
नीर दिखे हर मोड़ अभी
और मोड़ के पार है जाना कहीं
स्मृतियों मे मेरी जैसे खलबली मची
उफने कुछ और बह जाए
ठहरे कभी और बढ़ जाए
तडित की गति से त्वरित कभी
कभी केचुए से भी मंद
कोलाहल मन को ले जाए कहीं
और संशय फ़िर ला पटके वहीं
आदि कहीं और अंत कभी
संकल्पों और विकल्पों के बीच,
नीर दिखे हर मोड़ अभी
और मोड़ के पार है जाना कहीं
samay chala fisalata
समय के अतिरिक्त वो कौन हो सकता भला,
सुख सरित सा जो झर रहा,दुःख ले जा सिरा रहा,
आज है जो कल नहीं, आगे मिलेगा क्या कभी,
यह बात समझा हमको रहा,
समय के अतिरिक्त वो कौन हो सकता भला
वह जो कभी रुकता नहीं,वह जो कभी थकता नहीं,
हो पथ विकट रास्ता विरल
जो बस चला ही जा रहा
समय के अतिरिक्त वो कौन हो सकता भला
न लक्ष्य जिसका कीर्ति
न ही वो पूजित मूर्ती
आदर्श हो, आदेश हो, या हो अनुरोध कोई
वो जो सभी को टलता,हांथों फिसलता जा रहा
समय के अतिरिक्त वो कौन हो सकता भला.
सुख सरित सा जो झर रहा,दुःख ले जा सिरा रहा,
आज है जो कल नहीं, आगे मिलेगा क्या कभी,
यह बात समझा हमको रहा,
समय के अतिरिक्त वो कौन हो सकता भला
वह जो कभी रुकता नहीं,वह जो कभी थकता नहीं,
हो पथ विकट रास्ता विरल
जो बस चला ही जा रहा
समय के अतिरिक्त वो कौन हो सकता भला
न लक्ष्य जिसका कीर्ति
न ही वो पूजित मूर्ती
आदर्श हो, आदेश हो, या हो अनुरोध कोई
वो जो सभी को टलता,हांथों फिसलता जा रहा
समय के अतिरिक्त वो कौन हो सकता भला.
bas ye na ho
सोंचे क्या जबकि सोचा न हो
देखकर भी जो आँखों ने देखा न हो
दिन बीते कब और कब अगली सुबह हो
रत का इस बीच कुछ पता न हो
कह के ऐसा कुछ जो अब तक सुना न हो
मेरी आँखे नम और दिल शर्मिंदा न हो
देखकर भी जो आँखों ने देखा न हो
दिन बीते कब और कब अगली सुबह हो
रत का इस बीच कुछ पता न हो
कह के ऐसा कुछ जो अब तक सुना न हो
मेरी आँखे नम और दिल शर्मिंदा न हो
रविवार की सुबह, बिस्तर मे पड़े हुए
जागे बिना, सोये बिना, अलसाये से,
ठंड मे, रजाई मे, धूप मे, बारिश मे,
संग मे, अकेले मे, पड़े रहना .
बात मे और चुप मे अनमनाये हुए,
सुन कर अनसुना कर, बातों को सुनाये हुए, लड़े रहना
धीरे बजाते सुरों मे, तेज से बेसुरों मे,
चढ़ते दिन के अहेसस मे, उसे भूलने की चाह मे,
समय की चाल मे, उसके रुक जाने के ख्याल मे लगे रहना
सफ़ेद से परदों मे, लाल से बिस्तर मे, नीली सी चटाई मे घर बुनना.
पापा के पलंग को, माँ की साडी को dहूधना .
कुछ पाना, रोज कुछ खोना
रविवार की सुबह को अकेले मे रोना(हँसना)
फ़िर जग पड़ना और कम पर लगना.
शाम का घिर आना, भाई का जाना,
और फ़िर अकेले रह जाना
जागे बिना, सोये बिना, अलसाये से,
ठंड मे, रजाई मे, धूप मे, बारिश मे,
संग मे, अकेले मे, पड़े रहना .
बात मे और चुप मे अनमनाये हुए,
सुन कर अनसुना कर, बातों को सुनाये हुए, लड़े रहना
धीरे बजाते सुरों मे, तेज से बेसुरों मे,
चढ़ते दिन के अहेसस मे, उसे भूलने की चाह मे,
समय की चाल मे, उसके रुक जाने के ख्याल मे लगे रहना
सफ़ेद से परदों मे, लाल से बिस्तर मे, नीली सी चटाई मे घर बुनना.
पापा के पलंग को, माँ की साडी को dहूधना .
कुछ पाना, रोज कुछ खोना
रविवार की सुबह को अकेले मे रोना(हँसना)
फ़िर जग पड़ना और कम पर लगना.
शाम का घिर आना, भाई का जाना,
और फ़िर अकेले रह जाना
alhadit hun jo priya ka sang
आल्हादित ये संसार,
बस एक छण,
जिसे जाए न रोका,
जो हो अनकोसा,
जिस छण की त्वरा मे मग्न,
हो हर छण,
जिसकी राह तके हर प्राण मन.
जीवन के हर उस छण,
आल्हादित ये संसार,
हर उस छण, जिसमे प्रिय का संग.
बस एक छण,
जिसे जाए न रोका,
जो हो अनकोसा,
जिस छण की त्वरा मे मग्न,
हो हर छण,
जिसकी राह तके हर प्राण मन.
जीवन के हर उस छण,
आल्हादित ये संसार,
हर उस छण, जिसमे प्रिय का संग.
tum chale gaye II
तुम चले गए तो लगा की जैसे जग चला,
ह्रदय ने मेरे जैसे मुझको ही छला,
वो अनकहा जो फ़िर भी रहा अनकहा,
निस्शब्द का गुंजन धीमा- धीमा,
न सही मैंने कहा,
किंतु क्या तुमने भी न सुना,
ह्रदय न जाने कैसे झंझावातो से छलका,
कुछ मधुर कुछ कटु रस चला बहता,
क्या सच तुमने कुछ भी नहीं सुना.
ह्रदय ने मेरे जैसे मुझको ही छला,
वो अनकहा जो फ़िर भी रहा अनकहा,
निस्शब्द का गुंजन धीमा- धीमा,
न सही मैंने कहा,
किंतु क्या तुमने भी न सुना,
ह्रदय न जाने कैसे झंझावातो से छलका,
कुछ मधुर कुछ कटु रस चला बहता,
क्या सच तुमने कुछ भी नहीं सुना.
anischit ye sang
मेरे जीवन के तुम बसंत
कहो अनिश्चित क्यों है संग
कितनी ही रातों मे, किस किस की बातों मे,
उलझी मन की उलझन.
तुम्हारा प्रयाण जैसे पतंग,
और मेरा ये निस्संग.
झर के जीवन कहता बह चल.
तुम चले के जैसे मद मे मतंग,
पीछे छूटा सूना अंक,
डसे विरह का जैसे डंक,
लगे फीका हर रंग.
क्यों अनिश्चित अपना संग...
कहो क्यों अनिश्चित अपना संग...
कहो अनिश्चित क्यों है संग
कितनी ही रातों मे, किस किस की बातों मे,
उलझी मन की उलझन.
तुम्हारा प्रयाण जैसे पतंग,
और मेरा ये निस्संग.
झर के जीवन कहता बह चल.
तुम चले के जैसे मद मे मतंग,
पीछे छूटा सूना अंक,
डसे विरह का जैसे डंक,
लगे फीका हर रंग.
क्यों अनिश्चित अपना संग...
कहो क्यों अनिश्चित अपना संग...
kya likha kya mita
क्या कहें क्या लिखा.....
था जो कब मिट गया...
अब खामोशियाँ ही सही.....
बाकि कुछ भी नहीं....
जाने कब चल पड़े.....
थे रुके कारवां.....
चुक गए सरे लम्हे....
रहे जब दरमियाँ....
रेत पर ही लिखा.....
था जो सब मिट गया...
था जो कब मिट गया...
अब खामोशियाँ ही सही.....
बाकि कुछ भी नहीं....
जाने कब चल पड़े.....
थे रुके कारवां.....
चुक गए सरे लम्हे....
रहे जब दरमियाँ....
रेत पर ही लिखा.....
था जो सब मिट गया...
neela sa man
नीला ही है मेरा रंग.
नीला तन, नीला ही मन.
दुःख भरा और उदास,
नही जिसे आस उजास.
यह है बस रात ही रात.
और सूनी रातों की बात.
नीला ही है मन, नीला ही तन.
नीला तन, नीला ही मन.
दुःख भरा और उदास,
नही जिसे आस उजास.
यह है बस रात ही रात.
और सूनी रातों की बात.
नीला ही है मन, नीला ही तन.
neela sa man
neela hi hai mera rang.
neela tan, neela hi man.
dukh bhara aur udas,
nahi jise aas ujas.
yeh hai bas rat hi rat.
aur sooni raton ki bat.
neela hi hai man, neela hi tan.
neela tan, neela hi man.
dukh bhara aur udas,
nahi jise aas ujas.
yeh hai bas rat hi rat.
aur sooni raton ki bat.
neela hi hai man, neela hi tan.
tum hue gumsum
बहुत दिन हुए, की तुम गुमसुम हुए
कहने को कुछ नहीं, की ख़बर ही नहीं
सुन सकूं अनकहा ऐसी मैं भी कहाँ,
जान मैं न सकी, जाने सारा जहाँ.
कल कहा कल कहूं, जाने कैसे सहूँ.
दूर तुम जो गए, दूर है कह कहा.
दूर है हर हँसी, दूर ही हर खुशी.
दुःख नहीं पर कहीं, दूरी का एहसास ये,
है दबा, और मन ये है बुझा ही बुझा.
कहने को कुछ नहीं, की ख़बर ही नहीं
सुन सकूं अनकहा ऐसी मैं भी कहाँ,
जान मैं न सकी, जाने सारा जहाँ.
कल कहा कल कहूं, जाने कैसे सहूँ.
दूर तुम जो गए, दूर है कह कहा.
दूर है हर हँसी, दूर ही हर खुशी.
दुःख नहीं पर कहीं, दूरी का एहसास ये,
है दबा, और मन ये है बुझा ही बुझा.
tum chale gaye
तुम चले गए तो लगा, की जैसे जग चला.
ह्रदय ने जैसे मेरे, मुझको ही छला.
तड़प विरह की, कौतुक संग का,
dard अकेलेपन का, और भी हुआ हरा.
सहमी स्वाभाव की, वो चंचला.
रुका सदा का मेरा, वो कहकहा.
तुमने भी न सुना, न मुझसे गया कहा.
तुम चले गए तो लगा, की जैसे जग चला.
ह्रदय ने जैसे मेरे, मुझको ही छल.
ह्रदय ने जैसे मेरे, मुझको ही छला.
तड़प विरह की, कौतुक संग का,
dard अकेलेपन का, और भी हुआ हरा.
सहमी स्वाभाव की, वो चंचला.
रुका सदा का मेरा, वो कहकहा.
तुमने भी न सुना, न मुझसे गया कहा.
तुम चले गए तो लगा, की जैसे जग चला.
ह्रदय ने जैसे मेरे, मुझको ही छल.
bhooli main
विश्वास को मेरे इतना तोडा, भरोसा तुम पर करना भूल गई.
हाँथ मेरा तुमने इतनी बार छोडा, मैं तुम्हे साथ चलाना भूल गई.
मुझको तुम्हारी कमजोरी कभी न भाई,पर ताकत तुमने मुझ पर ही आजमाई.
पीछे अब न आऊँगी बुला अब कितना ही, झिड़का है तुमने ऐसा,की दुलार तुम्हारा भूल गई।
सम्मान को मेरे यो न कुचालो, कहा कितना तुम्हे,
तुमने संम्मान खोया, मैं तुम्हारा आदर करना भूल गई.
जाओ अब नहीं करती याद कुछ भी, मैं वो अब सब बातें पुरानी भूल गई.
मन मे जो एक sमिरुती है वों कराती सब ही,कैसे कह दूँ मैं तुम्हे यद् करना भूल गई.
हाँथ मेरा तुमने इतनी बार छोडा, मैं तुम्हे साथ चलाना भूल गई.
मुझको तुम्हारी कमजोरी कभी न भाई,पर ताकत तुमने मुझ पर ही आजमाई.
पीछे अब न आऊँगी बुला अब कितना ही, झिड़का है तुमने ऐसा,की दुलार तुम्हारा भूल गई।
सम्मान को मेरे यो न कुचालो, कहा कितना तुम्हे,
तुमने संम्मान खोया, मैं तुम्हारा आदर करना भूल गई.
जाओ अब नहीं करती याद कुछ भी, मैं वो अब सब बातें पुरानी भूल गई.
मन मे जो एक sमिरुती है वों कराती सब ही,कैसे कह दूँ मैं तुम्हे यद् करना भूल गई.
तेरे साथ की आदत क्यों हो,तेरे बाद ये बातें क्यों हो,
चाशनी सी घुलती वो आवाज,फीकेपन का अहेसस बस उसके ही बाद,
हर चाय मे यूं चीनी कम क्यों हो...
तीखा तीखा सा दिन, और चुभती सी ये रात,
उनींद के वो दोपहर, और बहकी से वो शाम,
बाद ख़त्म होने के याद वो जाम क्यों हो....
घनेरे छाए मेघों के बीच तू था,भीगने से बचने मे,
और भीग जाने मे भी तू था,
भीगे बदन आज मुलाकात की कसक क्यों हो...
शूल जब तुने चुभाया तो लगा मीठा,फूल जब तुने रिझाया तो लगा महका,
महकी हुई हर सौगात पर तेरी याद क्यों हो....
कभी कहीं से शुरु, और कभी कहीं पे ख़त्म,
छूटे से अनकहे हजारों किस्से और उनके पूरे न होने की चुभन,
बाद बीत जाने के फिर कोई पैगाम क्यों हो.....
तुम वो सुबह की किरण,तुम वो मचली सी पवन,
तुमसे लौटा था मेरा बचपन, तुमसे जिया फिर से लड़कपन,
डरी हुई सी उस लड़की का, डरा सा चेहरा फिर आज ही क्यों हो...
तेरे दर को छोड़ा जान कर,तेरे घर को पराया मान कर,
तेरे मन मे पता नहीं, कभी कोई एहसास हो न हो......
चाशनी सी घुलती वो आवाज,फीकेपन का अहेसस बस उसके ही बाद,
हर चाय मे यूं चीनी कम क्यों हो...
तीखा तीखा सा दिन, और चुभती सी ये रात,
उनींद के वो दोपहर, और बहकी से वो शाम,
बाद ख़त्म होने के याद वो जाम क्यों हो....
घनेरे छाए मेघों के बीच तू था,भीगने से बचने मे,
और भीग जाने मे भी तू था,
भीगे बदन आज मुलाकात की कसक क्यों हो...
शूल जब तुने चुभाया तो लगा मीठा,फूल जब तुने रिझाया तो लगा महका,
महकी हुई हर सौगात पर तेरी याद क्यों हो....
कभी कहीं से शुरु, और कभी कहीं पे ख़त्म,
छूटे से अनकहे हजारों किस्से और उनके पूरे न होने की चुभन,
बाद बीत जाने के फिर कोई पैगाम क्यों हो.....
तुम वो सुबह की किरण,तुम वो मचली सी पवन,
तुमसे लौटा था मेरा बचपन, तुमसे जिया फिर से लड़कपन,
डरी हुई सी उस लड़की का, डरा सा चेहरा फिर आज ही क्यों हो...
तेरे दर को छोड़ा जान कर,तेरे घर को पराया मान कर,
तेरे मन मे पता नहीं, कभी कोई एहसास हो न हो......
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