Tuesday, December 29, 2009

लाल

रस और लस मे अटका है
और
रस और लस मे भटका है
झोंक से आ कर लिपटा है
और
झोंक से ही तो भभका है
पलट के ताप सा गर्म भी है
और
लपट की ऑट सा ठंडा है
तेज है और क्रोध भी है
और
रजस है और काम भी है
व्यग्र यही है, है निश्चित भी
अरे यह
तत्पर भी है पर निश्चिन्त नहीं
माता का है तो दुलार है
और
गोदरी का है तो छुपाव है
लाल है जी लाल है
हाँ ये
लाल ही तो है

Sunday, December 6, 2009

मेरे बनो जब मेरा मन करे

वो मेरी खिड़की से,
झांकता सा चन्द्रमा,
जैसे टंगा हुआ
बिजली के तारों पर
जैसे मद्धम सा ताप
तवे के एक छोर पर
पीला सा, लाल सा, उतार पर
रोता सा, हंसता सा कभी
तस्वीरों सा दीवार पर,

वो मेरी खिड़की से
झांकता सा चन्द्रमा
छन कर कभी परदों से
गिरता है फर्श पर
परदों के रंग सा
परदों को रंगता सा

वो मेरी खिड़की से
झांकता सा चन्द्रमा
कभी छुपता, बड़ी भोर कभी दिखता
जल्दी की शाम को कभी मिलता
प्रिय की बाँहों के घेरे सा घिरता
और घिर धीमे से सुर्ख होता

वो मेरी खिड़की से
झांकता सा चन्द्रमा
पूर्णता का चन्द्र, अष्ठमी का चन्द्र
कभी कभी दूज का भी
दूसरी और दिखता
बादलों के पार चलता
बादलों के पास चलता

वो मेरी खिड़की से
झांकता सा चन्द्रमा
चलता दिखता पर, बादल चलते
उड़ उड़ कर चहुँ और
उसे सतरंगी करते
वो रंग न धरता
सब तजता , शुभ्र रजत
राज को, मन को, देह को,
शुभ्र करता फ़िर धूम करता
कभी प्रणय की शीतलता
कभी विरह की उष्णता भरता

वो मेरी खिड़की से
झांकता सा चन्द्रमा
मेरा संबल
मेरे प्रियतम का प्रतीक
मेरा मधु, मेरी सूरा
मेरा बनता, जब मेरा मन करता

Wednesday, November 11, 2009

विधि गति

धीमी कभी , तेज़ कभी
मेरे लिए रही अपरिचित,
अब तक रही अनमनी,
सोची नही, पढ़ी भी नहीं
अचानक दिखी, कभी अनछुई
फ़िर लगी परायी सी
जो जानी नहीं गई,
सो मानी नहीं गई,
लड़ी विधि से और हारी,
अगली बार की फ़िर तय्यारी,
लड़, हार कर, बार बार,
बात मुझसे, कभी मानी नहीं गई

Thursday, November 5, 2009

लिपटी सी याद

पीली सी खिड़की और नीला दरवाजा
छुप सी चुपके से होती वो आह्ट
कहती वो आह्ट की अब आजा
आजा की बस नहीं कटती ये बैन
आजा के जाने क्या ढूढे ये नैन
चुनरी वो दुबकी सी सिमटी सी
लिपटी जो मुझसे यूँ चुभती सी
दिन से छुपाती, रात से बचाती
पर नहीं तेरी याद से... छोडे जो तरसाती सी

Saturday, October 24, 2009

आज का ये दिन

आज का ये दिन नहीं
श्रृंगार का, अनुराग का,
थामे हुए हांथों का,
और यु ही के मुस्काने का
पास के दुलार का,
और मन के मनुहार का,
ये सब करेंगे फ़िर कभी
ये है सरे भूतों की गति
बात जैसी की स्मृति ... झूठी सच्ची
ये समय है कार्य का, वृत्ति का ...
भागने का, पाने का
चैन इसमे ही है अभी
बाकि करेंगे फ़िर कभी ...
नहीं अभी... नहीं अभी

Monday, April 20, 2009

सिरा जो सरका

सिरा ... सर ... सर सरका
कभी पकड़ा कस कर
कभी बस यूँ ही छूटा
विचारों का तो कभी न पकड़ा
आचार का भी हाँथ न आया
अपने चारों ओर लिपटाया
बांधा सहेजा और रोका
पर जब जब डुलाया
ढुलता ही गया
न रुका... रोका न गया
नार सा पड़ा कभी
दिखा लिटा, पर छूटे ही रपटा
थक ने कही अब बस कर... बहुत
पर न उसने सुना न रुका
अब दूर हटा और मन छिटका
देख इसे क्या वो ढिढका
नही नहीं , कभी नहीं

अरे सिरे का सार तभी तक
सरका वो जब तक सर सर...

Tuesday, March 3, 2009

धूप सी

छ्न छ्न के चौखट सी
गिरी धुप चाँदनी पे उजली
ऊष्ण ऊष्ण हुए जो रोम
रोम जो उड़ कर बिखरी
तरल की ऐसी बह जायेगी
विरल ये हाँथ नहीं आएगी
कभी तो बांहों बिछ जायेगी
कभी दूर सिमट जायेगी
अनुराग से रोको
बंधो वाष्प बन
मेघ सा घेरो तो
रहेगी तुम्हारी बन

आज का जड़ और कल का जर

सब्द मेरे जड़ तो क्या
जीवन्तता नश्वर तो नहीं
सानिध्य मेरा अपर हो सही
मित्रता का हेतु हो वही
धीमे धीमे का ये झरण
किलके जीवों का ये जर
पीछे इस गाजरी सिन्दूरी के
छिपा अंधेरे का कालापन
तुम हो तो मैं क्यूँ जड़
फ़िर क्यूँ हो मुझको डर
की आज का जड़ और कल का जर

Wednesday, January 14, 2009

मेरा दंभ

झर झर के झरा
सारा दंभ
सालों संजोया
देखो टूटा वो छम छम
जोड़े से जुड़े न फ़िर
तंतु ये जर
जिया इसे जब था
मैंने मन भर
अब जो ये छूटा
दिखे जीवन इसके पार
शांत ! शांत! मन के ओ ! द्वंद
जीवन है सम्भव
अपितु सहज, बिना दंभ

Sunday, January 11, 2009

फ़िर सही

गया तत्त्व मेरा
कुछ रहा नहीं
चुका वो कहकहा
रुदन ही सही
फ़िर से लिखा
मिटाया फ़िर कभी
ऊहापोह से भरा
और संशय भी वहीं
आछेप बिना प्रमाण
क्या अनुमान हैं सहीं ?
चल पड़े थे जहाँ
लौट के पहुंचे वहीँ...
उम्मीद से मन भरा
शुरुआत फ़िर नई ... अब सही