Wednesday, January 14, 2009

मेरा दंभ

झर झर के झरा
सारा दंभ
सालों संजोया
देखो टूटा वो छम छम
जोड़े से जुड़े न फ़िर
तंतु ये जर
जिया इसे जब था
मैंने मन भर
अब जो ये छूटा
दिखे जीवन इसके पार
शांत ! शांत! मन के ओ ! द्वंद
जीवन है सम्भव
अपितु सहज, बिना दंभ

2 comments:

Vinay said...

बहुत अच्छी कविता है

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गुलाबी कोंपलें

nehasaraswt said...

dhanyawad