सिरा ... सर ... सर सरका
कभी पकड़ा कस कर
कभी बस यूँ ही छूटा
विचारों का तो कभी न पकड़ा
आचार का भी हाँथ न आया
अपने चारों ओर लिपटाया
बांधा सहेजा और रोका
पर जब जब डुलाया
ढुलता ही गया
न रुका... रोका न गया
नार सा पड़ा कभी
दिखा लिटा, पर छूटे ही रपटा
थक ने कही अब बस कर... बहुत
पर न उसने सुना न रुका
अब दूर हटा और मन छिटका
देख इसे क्या वो ढिढका
नही नहीं , कभी नहीं
अरे सिरे का सार तभी तक
सरका वो जब तक सर सर...
Monday, April 20, 2009
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8 comments:
अरे सिरे का सार तभी तक
सरका वो जब तक सर सर...
-बढ़िया भाव!!
बहुत सुंदर ...
बहुत ख़ूब, पंसदीदा रहेगी
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चाँद, बादल और शाम । गुलाबी कोंपलें
dhanyawad aapka...
Good one only the feeling of that part is I think missing. keep it up
@Anurag: i didn't get you ... still thanks for appreciation
Wish I could comment ..
wish
i know... mere aachar ka sira mujhe khud hi pakarana hai.... par wo bas saraka hi jata hai...
thanks hazel for being a support...
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