Monday, April 20, 2009

सिरा जो सरका

सिरा ... सर ... सर सरका
कभी पकड़ा कस कर
कभी बस यूँ ही छूटा
विचारों का तो कभी न पकड़ा
आचार का भी हाँथ न आया
अपने चारों ओर लिपटाया
बांधा सहेजा और रोका
पर जब जब डुलाया
ढुलता ही गया
न रुका... रोका न गया
नार सा पड़ा कभी
दिखा लिटा, पर छूटे ही रपटा
थक ने कही अब बस कर... बहुत
पर न उसने सुना न रुका
अब दूर हटा और मन छिटका
देख इसे क्या वो ढिढका
नही नहीं , कभी नहीं

अरे सिरे का सार तभी तक
सरका वो जब तक सर सर...

8 comments:

Udan Tashtari said...

अरे सिरे का सार तभी तक
सरका वो जब तक सर सर...

-बढ़िया भाव!!

संगीता पुरी said...

बहुत सुंदर ...

Vinay said...

बहुत ख़ूब, पंसदीदा रहेगी

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चाँद, बादल और शामगुलाबी कोंपलें

nehasaraswt said...

dhanyawad aapka...

Unknown said...

Good one only the feeling of that part is I think missing. keep it up

nehasaraswt said...

@Anurag: i didn't get you ... still thanks for appreciation

Hazel Dream said...

Wish I could comment ..
wish

nehasaraswt said...

i know... mere aachar ka sira mujhe khud hi pakarana hai.... par wo bas saraka hi jata hai...
thanks hazel for being a support...