आवरण वो हल्का सा
जो मैंने ओढ़ रखा
जग से छुपी कि आप से
ये कौन जाने सखा
साख्य की सौं तुम्हे
जो तुमने किसी से कहा
अस्तित्व मेरा ये
जबकि मेरा ही न रहा
फीर कोई क्यूँ कोई पूछे
क्या किससे और क्यूँ
रहा ढंका छुपा उघडा
दिखा कुछ और कुछ समझा
रचा कुछ और कुछ और बना
जो तुम्हे पता और मुझे पता
साख्य की सौं तुम्हे
जो तुमने किसी से कहा
Wednesday, November 19, 2008
Friday, November 14, 2008
सत्य वो नहीं जो है सन्मुख
कैसे कहें की प्रत्यक्ष प्रमुख
स्मृति जो रही मुखर
खुला पिटारा पंछी फुर्र
तब क्यूँ रही निर्माल्य अच्छुण
धूल छंटे कब, अवसाद घटे अब
हो प्रत्यक्ष प्रमुख , अपने पर
न की समय के बल पर
प्रताक्ष्ता नहीं आधार प्रमुखता का
नहीं ये सत्य भले ही हो सन्मुख
स्मृति जो रही मुखर
खुला पिटारा पंछी फुर्र
तब क्यूँ रही निर्माल्य अच्छुण
धूल छंटे कब, अवसाद घटे अब
हो प्रत्यक्ष प्रमुख , अपने पर
न की समय के बल पर
प्रताक्ष्ता नहीं आधार प्रमुखता का
नहीं ये सत्य भले ही हो सन्मुख
Monday, November 10, 2008
एक टुकडा समय .... पूरी कथा
टुकडे छोटे छोटे कटे समय के
एक मेरे नम हुआ
पूरे पूरे इस आवरण ने
मुझे भी थोड़ा छुपा लिया
अधूरा दूर से लगा था मुझे
था असल मे बंटा हुआ
अंतराल फ़िर आवर्त हुआ तो
वो मुझको मिला कुछ हिला हुआ
चली थी मैं रुक नहीं सकी
और धीमे से ही सही... वो भी कुछ कदम चला
टुकडे फ़िर जब जोड़े तो...
जो भी कहा वो कथा हुआ
एक मेरे नम हुआ
पूरे पूरे इस आवरण ने
मुझे भी थोड़ा छुपा लिया
अधूरा दूर से लगा था मुझे
था असल मे बंटा हुआ
अंतराल फ़िर आवर्त हुआ तो
वो मुझको मिला कुछ हिला हुआ
चली थी मैं रुक नहीं सकी
और धीमे से ही सही... वो भी कुछ कदम चला
टुकडे फ़िर जब जोड़े तो...
जो भी कहा वो कथा हुआ
Friday, November 7, 2008
एक दिन
वर्ष का ये एक दिन जो दिया तुमने
समय का ये भाग किलके मेरे अन्तरं मे
जो आद्र पवन छूती रही देर तक
बाद उसके की तड़प के फ़िर कब
भरे गूलरों से झरे इस पथ पर
एक दिन का चलाचल चुपचाप से
चहके पीलेपन से शरमाये से लाल मे
ये मेरा गमन फ़िर फ़िर से, इसी दिन से
धन्य से भरी मैं, रश्मियों से महकी
साँझ की उदासी से दूर, उजास के सूर्या के पास
वर्ष के इस दिन जिसे दिया है तुमने ( जैसे हर दिन से )
समय का ये भाग किलके मेरे अन्तरं मे
जो आद्र पवन छूती रही देर तक
बाद उसके की तड़प के फ़िर कब
भरे गूलरों से झरे इस पथ पर
एक दिन का चलाचल चुपचाप से
चहके पीलेपन से शरमाये से लाल मे
ये मेरा गमन फ़िर फ़िर से, इसी दिन से
धन्य से भरी मैं, रश्मियों से महकी
साँझ की उदासी से दूर, उजास के सूर्या के पास
वर्ष के इस दिन जिसे दिया है तुमने ( जैसे हर दिन से )
Tuesday, November 4, 2008
निद्रातम
सम्बन्ध जो स्फूर्दीप्त
छण के मिलन से विछिप्त
धधक का धू धू
स्फुरण जो स्वयम्भू
दृष्टि भर धूम
और पार का ताप
ताप ही ताप
जकड का स्पंदन
और छूटते की तपन
फ़िर जो बचे वो
धूम ही धूम
शांत .... अब शांत...
ये नहीं प्रकट... नहीं सत्य...
केवल है स्वप्न
जो चला झकझोर और फ़िर छोड़
रहा तुम्हारा निद्रातम
छण के मिलन से विछिप्त
धधक का धू धू
स्फुरण जो स्वयम्भू
दृष्टि भर धूम
और पार का ताप
ताप ही ताप
जकड का स्पंदन
और छूटते की तपन
फ़िर जो बचे वो
धूम ही धूम
शांत .... अब शांत...
ये नहीं प्रकट... नहीं सत्य...
केवल है स्वप्न
जो चला झकझोर और फ़िर छोड़
रहा तुम्हारा निद्रातम
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