Monday, July 5, 2010

सांवरी

झुके नयन, जैसे नत डाली,
झुकाए जिसे,बरखा मतवाली,
रोके जल को, पल पल्लवों मे,
झराए तब ही, जब भावो से झकझोरी

स्नेह से स्निग्ध, कपोल अधर सब,
भीगे पसीजे से, बरखा तर सो ही
वसित आज के और , कल के लिए भी,
जैसे सहेजे ताल औ पोखरी,

गोरी चले जब तन झुक तन, कभी
जैसे मद सावन का या की माया सांवरी की

Tuesday, June 8, 2010

बरखा फिर आई

अंग लगा जब कहा
बधाई पहली बारिश की...
हडबडाकर दुबका मन मे मेरे
हर्ष सा ... फिर उठा ... भय सा
बधाई मैंने भी दी उनको
आलिंगन जब छूटा
समझा फिर खुद को
भय क्यूँ हो वर्षा से
घुमड़ कर बादलों ने कहा
भय क्यूँ हुआ तुझको
समय जब फिर है बदला
तब थिथिरण क्यूँ हो
पहली ही उन बूंदों ने
चखकर स्वाद अपना
कहा खुश हो अब तो

अरे ओ मेघ सुन रे
अरी ओ बरखा रानी
तू भी सुन
भीगा कर तन को मेरे
थिरक कर वस्त्र पर सारे
न जाना तुमने
मन को मेरे

प्रिय है मेरे पास
फिर भी मन की टीस
साथ मेरे साथ के
पर बात है नहीं

बदल घुमरे और बरखा भी
फिर भी प्रिय संवाद न हो
तो मन मे भय है की
आज तो साथ है
क्या पता
कल साथ न हो

मन की उलझन
उलझी फिर फिर
तप्त मन लिए खड़ी मैं वर्षा मे

धीमे धीमे धुला
म्लान और छंटा बुरा सब अनुमान
प्रिय ने धीमे कदमो से आकर
जब थामा मेरे डुलते मन को
छुअन की सिहरन
चली की बरखा ने ली चिट्कोली
अरी बड़ी चली संसयों वाली
अभी हमने देखि तुम्हरी
ऋतू की तय्यारी

प्रिय जो ऐसा पास ये है
और ये कहती बात न है
सुन बरखा की बात
मेरे मन ने भी ली अंगड़ाई
भय तो पहले ही दुबका था
अब उसने की भागने की तय्यारी
:)
:)

Wednesday, April 7, 2010

झिरे के पार

झिर झिर दिखाया, जो तन प़र था,
मन का झिराया, तो कभी न दिखा,
झिरा दिखा, झिरे के पार न दिखा...

मुख से कहा, तो बुरा ही था
नयनो के कोर का, रह ही गया
तोल के बोला न गया , ना बातों का मोल रहा

चाहा क्या क्या, सुना कब था,
पाया क्या क्या, ये ही गिना,
गिन के ढेर लगाया, ढेर मे पैर लगाया

एक अनकहा, चला धीमे धीमे,
और एक कहकहा तेज़ चला
चला तेज, मुह के बल गिरा, उठाने को संबल न मिला

हाँथ जो थमा हर पल था
साथ जो चाहा प़र न मिला
हाँथ बढाया तिस प़र भी हाँथ का दायाँ बांया दिखा

झिरा दिखा, झिरे के पार न दिखा


Thursday, March 4, 2010

पतझड़

पतझड़... कब आया... चल चुपचाप पद...
हम जो चले उसके आने पर...
तो कह कर खड़ खड़ खड़...
चुप बैठे ये ऐसा नहीं...
वसंत से लड़े नहीं पर
वसंत पर बैठे चढ़ चढ़..