Tuesday, June 8, 2010

बरखा फिर आई

अंग लगा जब कहा
बधाई पहली बारिश की...
हडबडाकर दुबका मन मे मेरे
हर्ष सा ... फिर उठा ... भय सा
बधाई मैंने भी दी उनको
आलिंगन जब छूटा
समझा फिर खुद को
भय क्यूँ हो वर्षा से
घुमड़ कर बादलों ने कहा
भय क्यूँ हुआ तुझको
समय जब फिर है बदला
तब थिथिरण क्यूँ हो
पहली ही उन बूंदों ने
चखकर स्वाद अपना
कहा खुश हो अब तो

अरे ओ मेघ सुन रे
अरी ओ बरखा रानी
तू भी सुन
भीगा कर तन को मेरे
थिरक कर वस्त्र पर सारे
न जाना तुमने
मन को मेरे

प्रिय है मेरे पास
फिर भी मन की टीस
साथ मेरे साथ के
पर बात है नहीं

बदल घुमरे और बरखा भी
फिर भी प्रिय संवाद न हो
तो मन मे भय है की
आज तो साथ है
क्या पता
कल साथ न हो

मन की उलझन
उलझी फिर फिर
तप्त मन लिए खड़ी मैं वर्षा मे

धीमे धीमे धुला
म्लान और छंटा बुरा सब अनुमान
प्रिय ने धीमे कदमो से आकर
जब थामा मेरे डुलते मन को
छुअन की सिहरन
चली की बरखा ने ली चिट्कोली
अरी बड़ी चली संसयों वाली
अभी हमने देखि तुम्हरी
ऋतू की तय्यारी

प्रिय जो ऐसा पास ये है
और ये कहती बात न है
सुन बरखा की बात
मेरे मन ने भी ली अंगड़ाई
भय तो पहले ही दुबका था
अब उसने की भागने की तय्यारी
:)
:)

2 comments:

sanu shukla said...

bahut sundar bhav hai..

गाँधी जी का तीन बन्दर का सिद्धांत-एक नकारात्मक सिद्धांत http://iisanuii.blogspot.com/2010/06/blog-post_08.html

Lookinbard said...

sensitive and intense expression!!