देश काल के परे, कभी क्या चल पाएंगे
बीज जो बोए आज वही कल फल पाएंगे
क्रांति नहीं आतंकित मन मे रह सकती है
प्रयाण के पूर्व ही देखो ये थकती है
जो था प्रहरी और आया काम
जो था सुरक्षित प्राण उसी के प्रतीक्षित हैं
थम कर कह संयम नहीं आज का नारा
सुना रुदन जो रो रहा भविष्य हमारा
विरोध भी मेरा अब रहा नहीं
सघर्ष प्रतिपल हर कहीं
नहीं नहीं ये मेरा घर नहीं...
चल कहीं ये मेरा घर नहीं
कह लो चाहे पलायन ...
पलायन ही है हर कहीं
रे मन मेरे चल कहीं ... चल कहीं
Monday, December 1, 2008
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1 comment:
अच्छी रचना के लिये बधाई स्वीकारें
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