आज का ये दिन ढल गया है
और बहुत से दिनों की तरह
और ये रात चली आयी है
बिन बुलाये जैसे हर बार
कुछ चाह के भी भला हुआ करता है
अब ये नहीं आएगा वापस
जो भी इसमें था वो सब कुछ
चला गया है इसके साथ
सरके हुए सिरे की तरह
फिसलते से जल को कभी रोका गया है
ढुलते हुए कपोलों पे फिसला है
धरा की रेखा की सी उभर आयी है
और लालिमा घिर आयी है
थके नयनो के कोरों पर
छुपाव से भी कभी क्या हुआ है
और बहुत से दिनों की तरह
और ये रात चली आयी है
बिन बुलाये जैसे हर बार
कुछ चाह के भी भला हुआ करता है
अब ये नहीं आएगा वापस
जो भी इसमें था वो सब कुछ
चला गया है इसके साथ
सरके हुए सिरे की तरह
फिसलते से जल को कभी रोका गया है
ढुलते हुए कपोलों पे फिसला है
धरा की रेखा की सी उभर आयी है
और लालिमा घिर आयी है
थके नयनो के कोरों पर
छुपाव से भी कभी क्या हुआ है
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