री धूप छनी, छन कर गिरी,
तीखी अब तक हुई नहीं
सोह सोह , सोह के सोखी
पूरे तन को गरमाई, जब जब मैं इसमे नहाई,
छू गई और अंतर मे समाई
कभी तो लगी भली
कभी तनिक न सुहाई
मेरे मन मे प्रिय के संग सी
प्रिय के बिना भला क्यूँ आई
छुपी दुबकी मैं बची इस से अब भागी
नहीं नहीं बिन तुम मुझे धुप न भाई
Tuesday, March 8, 2011
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