झिर झिर दिखाया, जो तन प़र था,
मन का झिराया, तो कभी न दिखा,
झिरा दिखा, झिरे के पार न दिखा...
मुख से कहा, तो बुरा ही था
नयनो के कोर का, रह ही गया
तोल के बोला न गया , ना बातों का मोल रहा
चाहा क्या क्या, सुना कब था,
पाया क्या क्या, ये ही गिना,
गिन के ढेर लगाया, ढेर मे पैर लगाया
एक अनकहा, चला धीमे धीमे,
और एक कहकहा तेज़ चला
चला तेज, मुह के बल गिरा, उठाने को संबल न मिला
हाँथ जो थमा हर पल था
साथ जो चाहा प़र न मिला
हाँथ बढाया तिस प़र भी हाँथ का दायाँ बांया दिखा
झिरा दिखा, झिरे के पार न दिखा
Wednesday, April 7, 2010
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