रख छोडा मेरे संशय को मैंने जहाँ
वो वैसे ही रहा पड़ा वहीँ का वहां
तुमने तो था उसे देखा, वो और उसका
अनचाहा प्रतिभूत... सिमट सहम
दृष्टी को तुम्हारी ही तरसा वो रोम रोम
निर्दिष्ट भावनाओ के लिए है ही क्या
उत्तरों की आस मे ये अस्तित्व
अनुत्तरित अनेक प्रश्नों के प्रतिबिम्ब
और उनके बीच
ये संशय मेरे ह्रदय का
चले कभी खींच और कभी भींच
Monday, October 13, 2008
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