विचारों मे हर छण यूं घटायें घिरी
कब कब और कितना किसको बताई छुपाई
कुछ जाने वो , रही कुछ अनजानी
बरसी अभी बस अब ही थी बरसी
बरसने को ही जाने बरसों तरसी
अब जबकि वो aबी बरसी बर बस ही
कभी फंसी और कभी खुली
कभी रची और कभी धुली
न मेरी लट सुलझी न मेहंदी रची
राह न जाने किसकी तकी
और न जाने किस राह पड़ी